वेद (संस्कृत: वेदः, शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान') प्राचीन भारत में उत्पन्न धार्मिक ग्रंथों का एक बड़ा समूह है। वैदिक संस्कृत में रचित ये ग्रंथ संस्कृत साहित्य की सबसे पुरानी परत और हिंदू धर्म के सबसे पुराने ग्रंथ हैं।
वेद चार हैं: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। प्रत्येक वेद के चार उपविभाग हैं - संहिता (मंत्र और आशीर्वाद), आरण्यक (अनुष्ठानों, समारोहों, बलिदानों और प्रतीकात्मक-बलिदानों पर पाठ), ब्राह्मण (अनुष्ठानों, समारोहों और बलिदानों पर टिप्पणियाँ), और उपनिषद (ध्यान पर चर्चा करने वाले ग्रंथ), दर्शन और आध्यात्मिक ज्ञान. कुछ विद्वान पांचवीं श्रेणी जोड़ते हैं - उपासना (पूजा)। उपनिषदों के पाठ विधर्मी श्रमण-परंपराओं के समान विचारों पर चर्चा करते हैं।
वेद श्रुति हैं ("जो सुना जाता है"), जो उन्हें अन्य धार्मिक ग्रंथों से अलग करता है, जिन्हें स्मृति ("क्या याद किया जाता है") कहा जाता है। हिंदू वेदों को अपौरुषेय मानते हैं, जिसका अर्थ है "मनुष्य का नहीं, अलौकिक" और "अवैयक्तिक, लेखकहीन," गहन ध्यान के बाद प्राचीन ऋषियों द्वारा सुनी गई पवित्र ध्वनियों और ग्रंथों का रहस्योद्घाटन .
वेदों को विस्तृत स्मरणीय तकनीकों की मदद से दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व से मौखिक रूप से प्रसारित किया गया है। मंत्र, वेदों का सबसे पुराना हिस्सा, आधुनिक युग में शब्दार्थ के बजाय उनकी ध्वन्यात्मकता के लिए पढ़े जाते हैं, और उन्हें "सृजन की मौलिक लय" माना जाता है, जो उन रूपों से पहले होता है जिनका वे उल्लेख करते हैं। उनका पाठ करने से ब्रह्मांड पुनर्जीवित होता है, "सृष्टि के रूपों को उनके आधार पर जीवंत और पोषित करके।"
विभिन्न भारतीय दर्शन और हिंदू संप्रदायों ने वेदों पर अलग-अलग रुख अपनाया है। भारतीय दर्शन के स्कूल जो वेदों के महत्व या मौलिक अधिकार को स्वीकार करते हैं, उनमें विशेष रूप से हिंदू दर्शन शामिल है और उन्हें एक साथ छह "रूढ़िवादी" (आस्तिक) स्कूलों के रूप में वर्गीकृत किया गया है। हालांकि, श्रमण परंपराएं, जैसे चार्वाक, अजिविका, बौद्ध धर्म, और जैन धर्म, जो वेदों को प्रामाणिक नहीं मानते थे, उन्हें "विधर्मी" या "गैर-रूढ़िवादी" (नास्तिक) विद्यालय कहा जाता है।
सनातन धर्म का सबसे आरम्भिक स्रोत है। इसमें १० मण्डल, १०२८ सूक्त और वर्तमान में १०,४६२ मन्त्र हैं, मन्त्र संख्या के विषय में विद्वानों में कुछ मतभेद है। मन्त्रों में देवताओं की स्तुति की गयी है। इसमें देवताओं का यज्ञ में आह्वान करने के लिये मन्त्र हैं। यही सर्वप्रथम वेद है। ऋग्वेद को इतिहासकार हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की अभी तक उपलब्ध पहली रचनाओं में एक मानते हैं। यह संसार के उन सर्वप्रथम ग्रन्थों में से एक है जिसकी किसी रूप में मान्यता आज तक समाज में बनी हुई है। यह सनातन धर्म का प्रमुख ग्रन्थ है। ऋग्वेद की रचनाओं को पढ़ने वाले ऋषि को होत्र कहा जाता है।
ऋग्वेद सबसे पुराना ज्ञात वैदिक संस्कृत पुस्तक है। इसकी प्रारम्भिक परतें किसी भी इंडो-यूरोपीय भाषा में सबसे पुराने मौजूदा ग्रन्थों में से एक हैं। ऋग्वेद की ध्वनियों और ग्रन्थों को दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व से मौखिक रूप से प्रसारित किया गया है। दार्शनिक और भाषाई साक्ष्य इंगित करते हैं कि ऋग्वेद संहिता के थोक की रचना भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में हुई थी, जो कि सबसे अधिक सम्भावना है- 8 वीं या 9 वीं शताब्दी के बाद, क्योंकि ऋग्वेद संस्कृत भाषा मे रचित है जो की देवनागरी लिपि मे है, देवनागरी लिपि 8 वीं शताब्दी के बाद विकसित हुई l
ऋक् संहिता में १० मण्डल तथा बालखिल्य सहित १०२८ सूक्त हैं। वेद मन्त्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है, जिसमें एकदैवत्व तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है। ऋग्वेद में ही मृत्युनिवारक त्र्यम्बक-मंत्र या मृत्युंजय मन्त्र (७/५९/१२) वर्णित है, ऋग्विधान के अनुसार इस मन्त्र के जप के साथ विधिवत व्रत तथा हवन करने से दीर्घ आयु प्राप्त होती है तथा मृत्यु दूर हो कर सब प्रकार का सुख प्राप्त होता है। विश्व-विख्यात गायत्री मन्त्र (ऋ० ३/६२/१०) भी इसी में वर्णित है। ऋग्वेद में अनेक प्रकार के लोकोपयोगी-सूक्त, तत्त्वज्ञान-सूक्त, संस्कार-सुक्त उदाहरणतः रोग निवारक-सूक्त (ऋ॰ १०/१३७/१-७), श्री सूक्त या लक्ष्मी सूक्त (ऋग्वेद के परिशिष्ट सूक्त के खिलसूक्त में), तत्त्वज्ञान के नासदीय-सूक्त (ऋ॰ १०/१२९/१-७) तथा हिरण्यगर्भ सूक्त (ऋ॰ १०/१२१/१-१०) और विवाह आदि के सूक्त (ऋ॰ १०/८५/१-४७) वर्णित हैं, जिनमें ज्ञान विज्ञान का चरमोत्कर्ष दिखलाई देता है।
इस ग्रन्थ को इतिहास की दृष्टि से भी एक महत्त्वपूर्ण रचना माना गया है। ईरानी अवेस्ता की गाथाओं का ऋग्वेद के श्लोकों के जैसे स्वरों में होना, जिसमें कुछ विविध भारतीय देवताओं जैसे अग्नि, वायु, जल, सोम आदि का वर्णन है।
सामवेद गीत-संगीत प्रधान है। प्राचीन आर्यों द्वारा साम-गान किया जाता था। सामवेद चारों वेदों में आकार की दृष्टि से सबसे छोटा है और इसके १८७५ मन्त्रों मे से ९९ को छोड़ कर सभी ऋगवेद के हैं। केवल १७ मन्त्र अथर्ववेद और यजुर्वेद के पाये जाते हैं। फ़िर भी इसकी प्रतिष्ठा सर्वाधिक है, जिसका एक कारण गीता में कृष्ण द्वारा वेदानां सामवेदोऽस्मि कहना भी है।
सामवेद यद्यपि छोटा है परन्तु एक तरह से यह सभी वेदों का सार रूप है और सभी वेदों के चुनेहुए अंश इसमें शामिल किये गये है। सामवेद संहिता में जो १८७५ मन्त्र हैं, उनमें से १५०४मन्त्र ऋग्वेद के ही हैं। सामवेद संहिता के दो भाग हैं, आर्चिक और गान। पुराणों में जोविवरण मिलता है उससे सामवेद की एक सहस्त्र शाखाओं के होने की जानकारी मिलती है। वर्तमान मेंप्रपंच ह्रदय, दिव्यावदान, चरणव्युह तथा जैमिनि गृहसूत्र को देखने पर १३ शाखाओं का पता चलताहै। इन तेरह में से तीन आचार्यों की शाखाएँ मिलती हैं- (१) कौथुमीय, (२) राणायनीय और (३)जैमिनीय। इसका अध्य्यन करने बाले पंडित पंचविश या उद्गाता कहलाते है।
यजुर्वेद हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ और चार वेदों में से एक है। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिये गद्य और पद्य मन्त्र हैं। ये हिन्दू धर्म के चार पवित्रतम प्रमुख ग्रन्थों में से एक है और अक्सर ऋग्वेद के बाद दूसरा वेद माना जाता है - इसमें ऋग्वेद के ६६३ मंत्र पाए जाते हैं। फिर भी इसे ऋग्वेद से अलग माना जाता है क्योंकि यजुर्वेद मुख्य रूप से एक गद्यात्मक ग्रन्थ है। यज्ञ में कहे जाने वाले गद्यात्मक मन्त्रों को ‘'यजुस’' कहा जाता है। यजुर्वेद के पद्यात्मक मन्त्र ऋग्वेद या अथर्ववेद से लिये गये है।[1] इनमें स्वतन्त्र पद्यात्मक मन्त्र बहुत कम हैं। यजुर्वेद में दो शाखा हैं : दक्षिण भारत में प्रचलित कृष्ण यजुर्वेद और उत्तर भारत में प्रचलित शुक्ल यजुर्वेद शाखा।
जहां ऋग्वेद की रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र में हुई थी वहीं यजुर्वेद की रचना कुरुक्षेत्र के प्रदेश में हुई।[2] कुछ लोगों के मतानुसार इसका रचनाकाल १४०० से १००० ई.पू. का माना जाता है।
अथर्ववेद संहिता हिन्दू धर्म के पवित्रतम वेदों में से चौथे वेद अथर्ववेद की संहिता अर्थात् मन्त्र भाग है। इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहते हैं। इसमें देवताओं की स्तुति के साथ, चिकित्सा, विज्ञान और दर्शन के भी मन्त्र हैं। अथर्ववेद संहिता के बारे में कहा गया है कि जिस राजा के राज्य में अथर्ववेद जानने वाला विद्वान् शान्तिस्थापन के कर्म में निरत रहता है, वह राष्ट्र उपद्रवरहित होकर निरन्तर उन्नति करता जाता हैः
अथर्ववेद का ज्ञान भगवान ने सबसे पहले महर्षि अंगिरा को दिया था, फिर महर्षि अंगिरा ने वह ज्ञान ब्रह्मा को दिया |
यस्य राज्ञो जनपदे अथर्वा शान्तिपारगः।
निवसत्यपि तद्राराष्ट्रं वर्धतेनिरुपद्रवम्।।